Saturday, January 16, 2010

भारत में विधि का इतिहास-9 : मेयर न्यायालय और गवर्नर के बीच आपसी विवाद और टकराव

तीनों प्रेसिडेंसियों में मेयर न्यायालय की अपील का अधिकार सपरिषद गवर्नर को दिए जाने से न्यायिक व्यवस्था पर कार्यपालिका का नियंत्रण स्थापित हो गया था और दोनों के मध्य मतभेद पनपने लगे थे। इस से विभिन्न प्रेसिडेंसियों में दोनों के मध्य टकराव और संबंधों में कटुता के बहुत से विवादास्पद मामले सामने आए ...





1)शपथ पर विवाद- मद्रास मेयर न्यायालय में गवाहों को शपथ दिलाने पर ही विवाद खड़ा हो गया। हिन्दू गवाहों को पेगोडा की शपथ ग्रहण करने के लिए कहा जाता था। एक गुजराती व्यापारी के पेगोडा की शपथ लेने से इन्कार कर देने पर उस पर जुर्माना अधिरोपित कर दिया गया मामले की अपील सपरिषद गवर्नर को करने पर जुर्माना माफ कर दिया गया। 1736 में तो गाय के स्थान पर पैगोडा की शपथ लेने से इन्कार करने पर दो हिन्दुओं को जेल भेज दिया गया। इस से हिन्दुओं में रोष व्याप्त हो जाने और नगर की शांति व्यवस्था को खतरा होने पर गवर्नर ने स्वयं हस्तक्षेप कर बंदियों को पैरोल पर छोड़ा।

2)
धर्म परिवर्तन का मामला- 1730 में मुम्बई में एक सिन्धी महिला द्वारा ईसाई धर्म ग्रहण कर लेने के कारण उस ेक 12 वर्षीय पुत्र ने माता को छोड़ कर अपने संबंधियों के यहाँ रहना आरंभ कर दिया। माता ने शरण देने वाले संबंधियों के विरुद्ध पुत्र को अवांछित रीति से निरुद्ध करने और उस के आभूषण अवैध रूप से रखने का वाद संस्थित किया। मेयर न्यायालय ने पुत्र को माता को सौंपने का आदेश दिया। अपील करने पर सपरिषद गवर्नर ने कहा कि मेयर न्यायालय धार्मिक रीति के मामलों और देशज व्यक्तियों के मामलों में मेयर न्यायालय को अधिकारिता न होने का निर्णय पारित कर दिया और न्यायालय को चेतावनी जारी की कि उसे ऐसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। न्यायालय ने गवर्नर का विरोध करते हुए कहा कि मामला धार्मिक और 1726 के चार्टर के प्राधिकार से न्यायालय इस तरह के मामले निपटाने के लिए सक्षम है। मेयर ने घोषित किया कि जब तक वह न्यायालय का प्रमुख रहेगा ऐसे मामले निपटाता रहेगा और न्यायालय के अधिकार की रक्षा करेगा। वह किंग इन काउंसिल तक जाने में संकोच नहीं करेगा। गवर्नर कोबाल ने मेयर को गवर्नर परिषद के सचिव पद से हटा दिया। सूचना कंपनी के निदेशक मंडल को इंग्लेंड में मिली तो उन्हों ने परिषद के अविवेकपूर्ण रवैये की और भविष्य में ऐसी तनावपूर्ण स्थितियाँ उत्पन्न न होने देने का आदेश दिया।

3)अरब व्यापारी का मामला-एक अन्य मामले में एक अरब व्यापारी ने अपने मोतियों की कीमत दिलाए जाने के लिए मेयर न्यायालय के समक्ष वाद प्रस्तुत किया। उस का कहना था कि गुजरात के तट पर उसे जलती हुई नौका से बचाने के समय प्रतिवादी ने उस के मोती लूट लिए। सपरिषद गवर्नर ने न्यायालय को सलाह दी कि प्रतिवादी पहले ही जलदस्युता के मामले में निरपराध साबित हो चुका है इस कारण से वाद मान्य नहीं है। न्यायालय ने परामर्श को न मान कर व्यापारी के पक्ष में निर्णय दे दिया। अपील किए जाने पर न्यायालय का निर्णय सपरिषद गवर्नर ने उलट दिया। इस से न्यायालय और सपरिषद गवर्नर के मतभेद तीव्र हो गए।

4)
मेयर और सचिव टेरियानों का मामला- मद्रास सरकार के सचिव टेरियानो और मेयर नाएश के बीच एक रात्रि भोज में शर्त लगी, जिस में मेयर हार गया लेकिन उस ने शर्त की राशि देने से मना कर दिया। इस पर टेरियनो ने उस के लिए वाद संस्थित किया। मेयर न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायालय में मेयर के विरुद्ध वाद संस्थित नहीं किया जा सकता। इस से गवर्नर और न्यायालय के संबंध खराब हो गए। नाएश के दुबारा मेयर चुन लिए जाने पर गवर्नर ने उसे शपथ ग्रहण करने की अनुमति नहीं दी। फिर नया मेयर चुनना पड़ा।
5)
संकुराम का मामला- 1735 में कंपनी ने एक भारतीय संकुराम पर संविदा भंग का मामला संस्थित किया। गवर्नर ने मेयर न्यायालय को संकुराम के विरुद्ध निष्पादन का वारंट जारी करने निर्देश दिया। न्यायालय ने संकुराम के प्रति नरमी बरतते हुए मामले में विलंब कर दिया। गवर्नर कौंसिल ने इसे अपील न्यायालय का अपमान समझते हुए मेयर और ऐल्डरमैनों के विरुद्ध निर्देशों के उल्लंघन का मामला प्रस्तुत करने का आदेश दिया। न्यायालय ने निर्देश को चुनौती देते हुए कहा कि जिस मामले में सपरिषद गवर्नर स्वयं पक्षकार है उस में उस का निर्देश देना विधिमान्य नहीं हो सकता। बाद में कंपनी के निदेशक मंडल के हस्तक्षेप से पक्षकारों में समझौता संपन्न हुआ।इस तरह 1926 के चार्टर से स्थापित न्याय व्यवस्था ने जहाँ कुछ नई परंपराएँ विकसित कीं वहीं वह आपसी विवादों के कारण संतोषजनक नहीं रही। बाद में 1753 का चार्टर जारी कर इस आपसी संघर्ष पर विराम लगाने का प्रयत्न किया गया।

मद्रास पर फ्रांसिसियों का कब्जा14 सितंबर 1746 को मद्रास पर फ्रांसिसियों ने कब्जा कर लिया जो तीन वर्षों तक बना रहा। वहाँ न्यायिक व्यवस्था निलंबित हो गई। 1749 में फ्रांसिसियों और अंग्रेजों के बीच हुई संधि से मद्रास पुनः कंपनी को प्राप्त हुआ। पुरानी न्याय व्यवस्था को पुनर्जीवित किए जाने के प्रयास किए गए जो निष्फल रहे। विधिज्ञों का मत था कि विदेशी आधिपत्य के कारण पुराने चार्टरों की वैधता समाप्त हो गई है। 8 जनवरी 1753 को ब्रिटिश सम्राट ने एक नया चार्टर जरी किया जिस के द्वारा 1726 के चार्टर के दोषों का निराकरण करने का प्रयत्न किया गया था। यह चार्टर तीनों प्रेसिडेंसियों के लिए समान रूप से जारी किया गया था।
न्यायालयों की स्वायत्तता का अंत
1753 के चार्टर के द्वारा नगर निगमों और मेयर न्यायालयों पर सपरिषद गवर्नर के नियंत्रण को प्रभावी बना दिया गया। ऐल्डरमैन के पदों की रिक्तियों के लिए प्राधिकार सपरिषद गवर्नर को दे दिया गया। ऐल्डरमैनों द्वारा मेयर का चुनाव करने की पद्धति को समाप्त कर दिया गया उस के स्थान पर ऐल्डरमैन दो नामों का प्रस्ताव करने लगे जिस में से किसी एक को सपरिषद गवर्नर द्वारा मेयर नियुक्त किया जाने लगा। मेयर न्यायालय के गठन का अधिकार भी सपरिषद गवर्नर को दे दिया गया। अब निगम या न्यायालय में कोई भी तभी तक नियुक्त रह सकता था जब तक कि उस पर सपरिषद गवर्नर की मेहरबानी रहे। इस तरह निगम और न्यायालय दोनों ही सपरिषद गवर्नर की अनियंत्रित शक्तियों के अधीन हो गए। मेयर न्यायालयों की स्वायत्तता का अंत हो गया। देशज व्यक्तियों को 1753 के चार्टर से अपने मामलों के अपने रीति रिवाजों के अनुसार अपने निर्णायकों निपटाने की छूट प्रदान कर दी गई। किसी मामले में पक्षकार सहमत होते थे तो मामला मेयर न्यायालय को निर्णय के लिए सोंपा जा सकता था। इस तरह मेयर न्यायालय की अधिकारिता स्पष्ट रूप से सीमित कर दी गई थी।

प्रार्थना न्यायालयों की स्थापना1753 के चार्टर से छोटे पाँच पैगोडा तक के दीवानी मामलों के लिए प्रत्येक प्रेसीडेंसी में एक-एक प्रार्थना न्यायालय की स्थापना की गई। जिस में कंपनी में कार्यरत कर्मचारी को न्यायिक प्राधिकारी नियुक्त किया जाता था जो कमिश्नर कहलाता था। इन की संख्या एक न्यायालय में आठ से चौबीस तक हो सकती थी। आधे प्राधिकारी प्रत्येक वर्ष सेवानिवृत्त हो जाते थे। रिक्तियों की पूर्ति गवर्नर करता था। ये न्यायालय त्वरित और सस्ता न्याय देने के लिए उपयोगी सिद्ध हुए। इस तरह अब चार तरह के न्यायालय हो गए थे। 1. प्रार्थना न्यायालय, 2. मेयर न्यायालय, 3. शांति और सत्र न्यायालय तथा प्रिवि काउंसिल जिस में मेयर न्यायालय के एक हजार पैगोडा से अधिक के निर्णयों की अपील प्रस्तुत की जा सकती थी।
कुछ अन्य विशेषताएँमेयर न्यायालय को मेयर के विरुद्ध वाद की सुनवाई का अधिकार दिया गया था। वह कंपनी के विरुद्ध भी वादों की सुनवाई कर सकता था। ऐसे मामलों में कंपनी को विरोधी पक्षकार के रूप में पक्ष प्रस्तुत करने का अधिकार था। किसी न्यायाधीश का किसी मामले में हित संबद्ध होता था तो उसे न्यायाधीश के रूप में बैठने की अनुमति नहीं थी। ईसाई साक्षियों के लिए शपथ विधि निर्धारित कर दी गई थी, जब कि अन्य मामलों में प्रचलित प्रथा के अनुसार शपथ ग्रहण करने की छूट दे दी गई थी।

भारतियों के लिए न्याय प्रशासन
1753 के चार्टर में भारतीय व्यक्तियों के लिए मेयर न्यायालय की अधिकारिता से छूट मिल जाने और रीति रिवाजों के अनुसार निर्णायकों द्वारा न्याय कराने की छूट मिल जाने से प्रेसिडेंसियों में अलग अलग देशज न्याय व्यवस्था स्थापित हो गई थी।मद्रास - यहाँ चाउल्ट्री न्यायालय थे जो 20 पैगोडा मूल्य के दीवानी मामलों का निपटारा करते थे। वे 1774-75 में कुछ अवधि के अलावा 1796 तक कार्य करते रहे। जब तक कि कंपनी ने अपना कर्मचारी नियुक्त कर के एक सामान्य न्यायालय स्थापित नहीं कर दिया। सामान्य न्यायालय को पाँच पैगोडा मूल्य तक के मामलों की सुनवाई का अधिकार रह गया था। 1798 में इस न्यायालय का स्थान अभिलेखक के न्यायालय ने ले लिया और 1800 में यह न्यायालय सदैव के लिए समाप्त हो गया।मुम्बई - यहाँ देशज व्यक्तियों के लिए कोई पृथक न्यायालय नहीं था। यहाँ के निवासियों को ब्रिटिश प्रजा मान कर मेयर न्यायालय ही काम करता रहा। तर्क यह था कि मुम्बई द्वीप इंग्लेंड के सम्राट को दहेज में मिलने के कारण यहाँ के निवासी उन की प्रजा हो गये थे।कोलकाता - यहाँ भारतियों के लिए पहले की तरह जमींदार के न्यायालय काम करते रहे। उन्हें ही सक्षम बनाया गया। यहाँ हिन्दू और मुसलमानों को ही देशज माना गया अन्य देशज लोगों पर मेयर न्यायालय की ही अधिकारिता रखी गई। सत्र न्यायालय सभी पर समान रूप से दाण्डिक प्राधिकार रखता था और अंग्रेजी विधि के अनुरूप कठोर दंड प्रवर्तित करता था।

समीक्षान्यायालय और कार्यपालिका के बीच मतभेद समाप्त करने की इस योजना से न्यायपालिका पर कार्यपालिका का पूर्ण नियंत्रण हो गया था और स्वतंत्र न्यायपालिका के सिद्धांत को आघात पहुँचा। मेयर न्यायालय में कंपनी के अधिकारियों की नियुक्ति से वे न तो अंग्रेजी विधि में दक्ष थे और न ही स्थानीय रिवाजों और परंपराओं से भिज्ञ थे। उन के द्वारा किया गया न्याय बहुत घटिया होता था। भारतियों के प्रति भेदभाव बरता जाता था। देशज व्यक्ति और कंपनी के बीच विवाद में अक्सर कंपनी का ही हित होता था। पेचीदा मामलों को इंग्लेंड भेजा जाता था जिस से न्याय में बहुत विलंब होता था।मेयर न्यायालय की अपील को सुनने का अधिकार प्रिवि कौंसिल को दिया गया था लेकिन यह व्यवस्था अधिक कारगर सिद्ध नहीं हुई। और मेयर न्यायालय ही केंद्रीय न्यायालय बना रहा, जिस पर सपरिषद गवर्नर का कठोर नियंत्रण था।न्यायालय को केवल प्रेसीडेंसी के निवासियों के मामलों पर ही सुनवाई का प्राधिकार था जिस से नगर के बाहर के अपराधियों को न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था जिस से वे बचे रह जाते थे। प्रेसीडेंसी के देशज निवासियों की प्रथाओं और रीति रिवाजों के विपरीत विधि होने से उन्हें युक्तिसंगत न्याय नहीं मिल सकता था। न्यायालयों में कुछ अटॉर्नियों को पक्षकारों का प्रतिनिधित्व करने की अनुमति दी गई थी लेकिन वे अंग्रेज होने के कारण भारतीय रीति रिवाजों से अनभिज्ञ होने से भारतीय पक्षकारों के लिए पूरी तरह से अनुपयोगी थे। वे यदि कंपनी के विरुद्ध किसी मामले में पैरवी करने को तैयार भी हो जाते थे तो उन के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही की जाती थी। इस न्याय व्यवस्था में भारतियों को कोई स्थान प्राप्त नहीं था। इस से भारतियों में इस न्याय व्यवस्था पर विश्वास कायम नहीं हो सका था। इन दोषों के बावजूद 1726 और 1753 के चार्टरों से स्थापित न्याय व्यवस्था ने भारत में अंग्रेजी विधि और न्यायिक व्यवस्था का प्रसार किया और न्याय व्यवस्था के विकास में एक नया अध्याय जोड़ कर भावी न्याय व्यवस्था के लिए नींव रखी। 1773 में विनियम अधिनियम के आने पर कलकत्ता में मेयर न्यायालय समाप्त हो गया और सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हुई।

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